Sunday, June 26, 2011

बाळपणै री बातां / दीनदयाल शर्मा



बाळपणै री बातां

'बाळपणै री बातां' बाल साहित्यकार दीनदयाल शर्मा री आपरी यादां री अेक लाम्बी जातरा है। अठै लेखक आपनै खुद नै पोथी रै केन्द्र में राखता थकां टाबरां रै जीवन री अबखायां अर बां'रै जीवन री मस्तियां रौ अेक सांगोपांग वर्णन कर्यौ है। माणस रौ बाळपणौ अर बाळपणै री बातां अर यादां बीं'रै जूण री सगळां संू अनमोल खजानौ हुवै। बाळपणै रा साथी-संगळियां नै माणस कदी नीं भूल सकै। लिखारा ईंयां लागै जियां बां' जद आ' पोथी मांडणी सरू करी, तद बै' खुद फेरूं अेकर जमां'ईं टाबर बणग्या हुवै। बाल मनोविग्यान री आपां तो बातां करां पण दीनदयाल शर्मा तो टाबरां रै बाल मनोविग्यान रा जादूगर है। बै' टाबर रै मन मांय ऊंडै तांईं देखण री कूंवत राखै। बां' कन्नै आपरै बाळपणै री यादां रौ अेक पूरौ भंडार है। आ' बात इण पोथी मांय आच्छी तरियां सिद्ध होवै।
आजकाल रा मा-बाप आपरै टाबरां साथै ज्यादा बतळावण कोनी करै। अर टाबर मानसिक अवसाद रा शिकार हो'र बीमारियां संू घिरज्यै। अर बां' रै शरीर रौ भी विकास नीं होवै पण इण पोथी मांय आ' बात पाठकां रै दिल तांईं सीधी पहुंचै। लिखारा आपरै टाबरां साथै कियां घुळमिल'र रैवै अर बां'रै साथै रोजिना बतळावण करै। अर आ' बतळावण ही बां' रै टाबरां मांय अेक नंूवै आत्मविसवास रौ विकास करै। लेखक आपरै बाळपणै री आज रै बाळपणै संू तुलना ईं पोथी मांय करी है। बीं' टेम पढाई बिना कोई मानसिक दवाब संू होंवती। टाबरां मांय बीं' टेम अेक बणावटी दौर कोनी हो। सगळा आपरी श्रद्धा सारू पढता अर घरआळा भी टाबरां ऊपर ज्यादा आपरी महत्वकांक्षा कोनी लादता। आ' बात आज रै अभिभावकां सारू ईं पोथी में सोवणौ अर साफ-साफ संदेश है।

दीनदयाल शर्मा टाबरां माथै पढाई रै बढतै बोझ माथै भौत चिन्त्या करता थकां कै'यौ है कै- आज टाबर री सावळ बढवार वास्तै बी'नै खेलणौ-घूमणौ भौत जरूरी है। नीं तो बौ' टाबर शरीर अर मन दोनां सूं कमजोर रै' ज्यासी। आज री पढाई व्यवस्था माथै चिंत्या दरसांवतां थकां लेखक ईं व्यवस्था मांय बदळाव करणै सारू जोर देवै। आज री व्यवस्था अक्षर ग्यान माथै जोर देवै अर लेखक टाबर नै व्यवहारिक ग्यान माथै जोर देवै। पोथी मांय 47 आलेख है जिका सरावण जोग है।

भासा सरल अर सहज, छपाई अर कागज सोवणा, चितराम भी संस्मरण मुजब। पोथी पढणौ सरू कर्यां पाठक पूरी पढ'र ई छोडै। इणनै आखै देश में पाठकां रौ प्यार मिलसी। राजस्थानी भासा में टाबरां रै संस्मरण री स्यात आ' पैली पोथी है। म्हारी घणी-घणी शुभकामना अर बधाई।

पोथी - बाळपणै री बातां
लेखक - दीनदयाल शर्मा
विधा - बाल संस्मरण
पृष्ठ - 112
संस्करण - 2009
मोल - 200 रिपिया
प्रकाशक - टाबर टोल़ी
10 /22 आर.एच.बी.,
हनुमानगढ़ जं.-335512
(राजस्थान)

- सतीश गोल्याण, मु.पो. जसाना, तहसील- नोहर, जिला-हनुमानगढ़, राज. मो. 9929230036

बाळपणे री बातां / दीनदयाल शर्मा


बाळपणे री बातां

आज मैंने एक राजस्थानी भाषा की एक ऐसी पुस्तक पढ़ी जिसे पढ़कर दिए तले अँधेरा वाली कहावत याद आ गयी.मैं बात कर रहा हूँ राजस्थानी भाषा के बाल साहित्यकार श्री दीनदयाल जी शर्मा की पुस्तक "बाळपणे री बातां" पढ़ी .

इस किताब को पढ़कर ऐसा लगा की यदि यही पुस्तक किसी विदेशी विद्वान या किसी हाई प्रोफाइल लेखक की लिखी होती या फिर ये अंग्रेजी में होती तो निश्चित रूप से आज यह दुनिया की एक चर्चित किताब होती.

यह पुस्तक मरिया मोंतेस्सरी Montessori ,गिजुभाई वधेका ,और जापानी शिक्षाविद Tetsuko Kuroyanagi (तोतोचान ) और ओशो आदि की विचारधाराओं से कम नहीं.बल्कि हमारे परिवेशगत अनुभवों के कारण ज्यादा उपयोगी है|मुझे खुसी है की हमारी मायड़ भाषा राजस्थानी में इतनी शोधपरक और बाल मनोविज्ञान पर आधारित कोई पुस्तक उपलब्ध है जिससे हमारा मान्यता का दावा और भी मजबूत हो सकता है.

इस पुस्तक में लेखक ने अपने बचपन से लेकर एक स्थापित अनुभवी अद्यापक तक और एक जागरूक अभिभावक से लेकर अपने ही बच्चों की बाल सुलभ क्रियाओं तक का मनोवैज्ञानिक ढंग से और वह भी बिना किसी गंभीर शब्दावली /शब्द आडम्बरों के बोझ के संस्मरणात्मक शैली मैं विश्लेषण किया है.पुस्तक को हालाँकि शीर्षकों में बांटा है पर हर शीर्षक अपने आप में पूर्ण है यानि कोई जरुरी नहीं की एक ही बैठक मे आप पूरी किताब पढ़ें .

लेखक ने अध्यापक के कार्य को नए रूप में प्रस्तुत करते हुवे उसे 'सिखाने वाला' की बजाय 'सीखने वाला' बनाने को प्रेरित किया है एक शीर्षक 'आपां टाबरां सूं सीखां,में देखिये --"पण म्हूं कै'वूं कै आपां नै टाबरां कन्नै ऊँ सीखनो चाईजै| आपां न '"टाबरां सूं संस्कारित होव्णों चैईजै|" यानी ऐसी शिक्षा व्यवस्था जिसमे अद्यापक किताबें पढ़कर नहीं वरन बच्चों को पढ़कर पढाये.

लेखक ने अपने संस्मरणों में जिन व्यक्तिओं को उद्धृत किया है उनमे से मानसी,दुष्यंत ,ऋतू तो उनके खुद के ही बच्चे हैं जबकि अन्य (राजेश चड्ढा,मायामृग, राममूर्ति.रमण द्वारका प्रसाद आदि) या तो अद्यापक है या फिर उनके लेखक साथी.यानी घटनाओं का ताना बना यहीं आस पास का है.स्कूलों की अमनोवैज्ञानिक, डरावनी और एक तरफ़ा शिक्षा पद्धति के परिणामो को रेखांकित करती है उनकी एक घटना 'रेडाराम रा दोरा' और एक 'गुरुज्याँ रो डर' रोजीना एक का'णी तो आज भी रोजीना कहीं न कहीं घटती ही रहती है.यह कहानी मुझे इस पुस्तक की सबसे प्रभावशाली और प्रेरणादायक लगी इसे पढ़ते हुवे मुझे मेरी शिक्षक के रूप में सुरुवाती दिनों में की हुई गलतियाँ मुझे कंपा सी गयी.और आँखों में आंसू भी आ गए.जो अध्यापक बच्चों की पिटाई करते हैं उनके लिए सबक है ये कहानी .यह कहानी तो हर किसी को पढ़नी चाहिए चाहे वह गुरूजी हो या अभिभावक |

पुस्तक में बच्चों के माध्यम से बाल जगत की निश्छलता ,भेदभाव हीनता और समता के भाव को प्रगट किया है साथ ही हिदयात दी है कि उन्हें सयाना बनाने की जिद न करें अभिभावक क्योंकि उनका सयानापन सच्चा और निश्वार्थ होता है तभी तो मानसी कहती है 'बै'इंसान कोनी के' और 'लोकेश मेरो भाई कोनी के'|

'सरकारी स्कूल में पढाई' तो एक कटु सत्य है शिक्षकों के लिए भी पर समाज और सरकार के लिए भी.जो कहते हैं की सरकारी अध्यापक अपने बच्चों को क्यों नहीं सरकारी स्कूलों में पढ़ाते |पुस्तक में गंभीर बातों को भी हास्य के पूट में लपेट कर प्रस्तुत किया है जैसे की गुरुज्याँ रो डर' भाषा शैली की दृष्टी से भी पुस्तक श्रेष्ट है. प्रूफ रीडर ने भी बहुत अच्छा कार्य किया एक भी शब्द आगे नहीं आया जहां खोट निकला जा सके.यह सायद एक अध्यापक छिद्रान्वेषी होते हैं का ही परिणाम है की दीनदयाल जी ने एक भी त्रुटी नहीं होने दी.

मस्तान सिंह जी के चित्रं भी पुस्तक के भावों को बखूबी प्रकट करते हैं. कुल मिलाकर यही कहना है की यह पुस्तक शिक्षा जगत से जुड़े हर व्यक्ति को पढनी चाहिए और दाद देनी चाहिए लेखक को की उन्होंने एक शिक्षाविद होने का परिचय दिया और राजस्थानी भषा को नए रूप में समृद्ध किया. जय हिंद--- जय राजस्थानी. वाह दीनदयाल जी थाने बनाया राखै साईं..

Ramesh Jangir, Bhirani, Bhadara, Hanumangarh, Rajasthan 09413536847